________________
: १३ :
कषाय-सूत्र
( १६२ ) अनिगृहीत क्रोध और मान, तथा प्रवर्द्धमान (वडते हुए) माया और लोम-ये चारोही कुत्सित कषाय पुनर्जन्मरूपी ससारवृक्ष की जड़ो को सोचते है।
___ जो मनुष्य अपना हित चाहता है, वह पाप को बढानेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार दोपो को सदा के लिए छोड़ दे।
( १६४ ) क्रोध प्रीति का नाश करता है। मान विनय का नाश करता है। माया मित्रता का नाश करती है, और लोभ सभी सद्गुणो का नाश कर देता है।
( १६५ ) शान्ति से क्रोध को मारे; नम्रता से अभिमान को जीते, सरलता से माया का नाश करे, और सन्तोष से लोभ को काबू में लाये।