________________
( १७४ )
-
-
यानी उसकी खुदकी आमाके प्रति उसका उपादेयभाव रहता है ताकि वह अपने अन्दर रहनेवाले रागांशको दूर हटाने का प्रयत्न जारी रखता है, एवं कर्मचेतनारूप होता है । अगर होते हुये राग को भी न जानकर या न मानकर अपने आपको शुद्ध ही जानने लगे तो फिर राग को दबाने या न होनेदेने की चेप्टा ही क्यो करे और तब फिर रागी का रागी ही वना रहे । किन्तु "राग नहीं निजमावसही यह सिद्धसमान सदा पदमेरो" । इस वाक्यके अनुसार स्वभावापेक्षया अपने आपको सिद्धसमान मानते हुये भी वर्तमान अपनेरूप को रागराजित अनुभव मे लाता है इस लिये वह
जिन परमपैनी सुविधिछैनी डारि अन्तर भेदिया । वर्णादि अरु रागादि ते निजभावकों न्याराकिया ।। निजमाहि निजकेहेतु निजकर आपको आयेगह्यो । गुणगुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेयममारकुछ भेद न रह्यो।
इस छन्द के अनुसार अपनी बुद्धि को सुचारु और दृढ बनाते हुये अपूर्वकरणादिरूप प्रयत्न द्वारा रागांश को दूर हटा कर अपने उपयोग को निर्मल बनाने में लगरहता है सो ही बताते हैं
सुसमाधि-कुठारेण छिद्यमानस्तरुयथा छिन्न एव नहीत्येष रागभागोऽष्टमादिषु ॥८६॥ अर्थात्- जब कुल्हाड़े के द्वारा किसी गाय को काटा