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[ ११ ] वा "श्रमण" कहलाने वाले, साधुओ का संघ बहुत विखर गया; कंठ करने की परम्परा में भग हुआ; बहुत उपदेश लुप्त हो गये। अकाल मिटने के वाद, स्थूलभद्राचार्य की देख रेख मे, पाटलिपुत्र में सघ का बड़ा सम्मेलन हुआ, बचे हुए उपदेशो का अनुसन्धान और राशीकरण हुआ; पर लिखे नही गये । महावीर निर्वाण की नवी शताब्दी (वीर-निर्वाण १२७-८४० तक) मे, मथुरा मेस्कदिलाचार्य, और वलभी मै नागार्जुन, के आधिपत्य में, सम्मेलन होकर, उपदेशो का संग्रह किया गया, और उन्हे लिखवाया भी गया। निर्वाण की वसवी शताब्दी में बहुत से श्रुतधारी साधुओ का विच्छेद हुआ। इस वेर, देवधिगणिक्षमा श्रमण ने अवशिष्ट संघ को वलभी नगर में एकत्र करके उक्त दोनो, माथुरी और वलभी वाचनाओ, की समन्वयपूर्वक लिपिकराई। जिनोक्त सूत्र के नाम से प्रसिद्ध वाक्योके सग्रहीता, यह देवधिगणि ही माने जाते है । उमा-स्वाति के "तत्वार्थाधिगम सूत्र", जोप्राय जिननिर्वाण के ४७१, अर्थात् विक्रम सवत् के प्रारम्भ, के लगभग, किसी समय मे, लिखे गये, और जिनमें जैनदर्शन का सार बहुत उत्तम रीति से कहा है, वे इनसे भिन्न है । देवर्षिगणि के सकलित सूत्र, पाचाराग, सूत्रकृताग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, दशवकालिक सूत्रादि को देखने का मुझे अवसर नहीं मिला। श्री वेचरदास जी ने, उन्ही सूत्रो मे से, स्वयं महावीर स्वामी के कहे श्लोको का उद्धरण और सदर्भण, प्रस्तुत अथ "महावीर-वाणी" में किया है।