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सत्य-सूत्र
(३४) श्रेष्ठ साघु पापकारी, निश्चयकारी और दूसरो को दुख पहुँचानेवाली वाणी न बोले।
श्रेष्ठ मानव इसी तरह क्रोध, लोभ, भय और हास्य से भी पापकारी वाणी न बोले। हंसते हुए भी पाप वचन नहीं बोलना चाहिए ।
(३५) आत्मार्थी सायक को दृष्ट (सत्य), परिमित, असदिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुभूत, वाचालता-रहित, और किसी को भी उद्विग्न न करनेवाली वाणी बोलनी चाहिए ।
भापा के गुण तथा दोपो को भली भांति जानकर दूषित भाषा को सदा के लिए छोड देनेवाला, षट्काय जीवो पर सयत रहनेवाला, तथा साधुत्व-पालन में सदा तत्पर बुद्धिमान साधक एकमात्र हितकारी मधुर भाषा बोले ।
(३७) श्रेष्ठ धीर पुरुष स्वयं जानकर अथवा गुरुजनो से सुनकर प्रजा का हित करनेवाले धर्म का उपदेश करे। जो आचरण निन्ध हो, निदानवाले हो, उनका कभी सेवन न करे ।