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ब्रह्मचर्य-सूत्र
३५ ( ५५ ) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को न तो स्त्रियो के प्रग-प्रत्यगो की सुन्दर प्राकृति की ओर ध्यान देना चाहिए, और न आँखो मे विकार पैदा करनेवाले हावभावो और स्नेह-भरे मीठे वचनो को ही और।
(५६ ) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियो का कूजन (बोलना),रोदन, गीत, हाम्य, नीत्कार और करुण क्रन्दन-जिनके सुनने पर विकार पैदा होते है सुनना छोड देना चाहिए।
(५७) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु स्त्रियो के पूर्वानुभूत हास्य, क्रीडा, रति, दर्प, सहसा-वित्रासन आदि कार्यों को कभी भी स्मरण न करे।
(५८) ब्रह्मचर्य-रत भिक्षुको शीघ्र ही वासना-वर्धक पुष्टिकारी भोजनपान का सदा के लिए परित्याग कर देना चाहिए।
(५६) ब्रह्मचर्य-रत स्थिरचित्त भिक्षु को सयम-यात्रा के निर्वाह के ' लिए हमेशा धर्मानुकूल विधि से प्राप्त परिमित भोजन ही करना चाहिए। कैसी ही भूख क्यो न लगी हो, लालसावश अधिकमात्रा में कभी भी भोजन नहीं करना चाहिए।