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[ १६ ] यही प्राशय उपनिषत् के वाक्य का है,
अविद्यायामन्तरे वर्तमाना., स्वयधीरा. पण्डितम्मन्यमानाः, दन्द्रम्यमाणा परियन्ति मूढा,
अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः । आज काल के पाडित्य मे, शब्द बहुत, अर्थ थोड़ा; विवाद बहुत, सम्वाद नहीं; अहमहमिका, विद्वत्ता-प्रदर्शनेच्छा बहुत, सज्ज्ञानेच्छा नही; द्वेष द्रोह बहुत, स्नेह प्रीति नही; असार-पलाल बहुत, सारधान्य नही; अविद्या-दुविद्या बहुत, सद्विद्या नहीं; शास्त्र का अर्थ, मल्लयुद्ध। प्राचीन महापुरुषो के वाक्यो मे, इसके विरुद्ध, सार, सज्जान, सद्भाव बहुत, असार और असत् नहीं। क्या किया जाय, मनुष्य की प्रकृति ही मे, अविद्या भी है, और विद्या भी; दु.ख भोगने पर ही वैराग्य और सद्बुद्धि का उदय होता है । __सा बुद्धिर्यदि पूर्व स्यात् क. पतेदेव बन्धने ?
फिर फिर अविद्या का प्राबल्य होता है। वैमनस्य, अशाति, युद्ध, समाज की दुर्व्यवस्था बढती है; सत् पुरुषो महापुरुषो का कर्तव्य है कि प्राचीनो के सदुपदेशो का, पुन पुन जीर्णोद्धार और प्रचार करके, और सब की एकवाक्यता, समरसता, दिखा के, मानवसमाज में, सौमनस्य, शाति, तुष्टि, पुष्टि का प्रसार करें, जैसा महावीर और बुद्ध ने किया।