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धर्म-सूत्र
(१०) उसी प्रकार मूर्ख मनुष्य भी धर्म को छोडकर, अधर्म को ग्रहण कर, अन्त में मृत्यु के मुंह मे पडकर जीवन की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।
तीन वनिये कुछ पूंजी लेकर धन कमाने घर से निकले। उनमे से एक को लाभ हुआ; दूसरा अपनी मूल पूँजी ही ज्यो-कीत्यो वचा लाया
(१२) तीसरा अपनी गांठ की पूंजी भी गाकर लौट आया। यह एक व्यावहारिक उपमा है, यही बात धर्म के सम्बन्ध में भी विचार लेनी चाहिए
(१३) मनुष्यत्व मूल है अर्थात् मनुष्य से मनुष्य बननेवाला, मूल पूंजी को बचानेवाला है । देवजन्म पाना, लाभ उठाना है । और जो मनुष्य नरक तया तिर्यक् गति को प्राप्त होता है, वह अपनी मूल पूँजी को भी गवां देनेवाला मूर्ख है।
(१४) जो रात और दिन एक वार अतीत की ओर चले जाते हैं, वे फिर कभी वापस नहीं पाते; जो मनुष्य अधर्म (पाप) करता है, उसके वे रात-दिन विल्कुल निष्फल जाते है।