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"महावीर वाणी" के द्वारा, जैन सम्प्रदाय का ध्यान इस श्रीर आकृष्ट होगा, और सम्प्रदाय के माननीय विद्वान् यति जन, इस, महावीर के, समाज और गार्हस्थ्य के परमोपयोगी उपदेश, श्रादेश का जीर्णोद्वार अपने अनुयायियो के व्यवहार मे करावेगे ।
अन्त में, इतना ही कहना है कि में, प्रकृत्या, समन्वयवादी, सम्वादी, सादृश्यदर्शी, ऐक्यदर्शी हूँ, विरोधदर्शी, विवादी, वैदुश्यान्वेपी, भेदावलोकी नही हूँ। मेरा यही विश्वास है कि सभी लोकहितेच्छु महापुरुषो ने उन्ही उन्ही सत्यो, तथ्यो, कल्याण-मार्गो का उपदेश किया है, जीवन के पूर्वा में लोक-यात्रा के साधन के लिये, और परार्ध में परमार्थ - मोक्ष निर्वाण-नि श्रेयस के साधन के लिये; भारत में तो महपियो ने, महावीर स्वामी ने, बुद्ध देव ने, मुख्य मुख्य शब्द भी प्राय वही प्रयोग किये है।
'महावीर वाणी' के अन्तिम 'विवाद सूत्र' में, कई वादो की चर्चा कर दी है। और उपसहार बहुत अच्छे शब्दों में कर दिया है
एवमेयाणि जम्पन्ता, वाला पडितमाणिणो, निययानियय सन्तं प्रयाणन्ता अवुद्धिया ।
अर्थात्,
एवमेते हि जल्पन्ति वाला. पण्डितमानिन, नियताऽनियतं सन्तं अजानन्तो ह्यबुद्धय. ॥