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[ १३ ] सन्यासी, भिक्षु, क्षपण, श्रमण के लिये भी अधिकाधिक मात्रा मे, उन अवच्छेदो को दिन दिन कम करते हुए, परमोपयोगी है। जब वह सर्वया समयो (शतों) से अनवच्छिन्न हो जाते है, तब "महावत" होकर सद्य. मोक्ष के हेतु होते है।
अहिंस-सच्च च, अतेणग च, तत्तो य वम्भ, अपरिग्गह च, पडिवज्जिया पच महन्वयाणि, चरिन्ज धम्म जिणदेसिय विद्।
-धम्मसुत्त, श्लोक २ ब्राह्मण मूत्राध्याय के भाव वैसे ही है, जैसे महाभारत के शातिपर्व में कहे हुए प्राय वीस श्लोको के है, जिनमें से प्रत्येक के अन्तिम शब्द यह है, "त देवा ब्राह्मण विदु."। धम्मपद में भी "ब्राह्मण वग्गों" में ऐसे ही भाव के श्लोक है।
न जटाहि न गोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो, यम्हि सच्च च धम्मोच, सो सुची, सो च ब्राह्मणो। न चाहं ब्राह्मण धूमि योनिज मत्ति-सम्भव, अकिंचनमनादान, तमह ब्रूमि ब्राह्मण । (धम्मपद) "महावीर-वाणी' में कहा है,
अलोलुप, मुहाजीवि अणगार अकिंचन , अससत्तं गिहत्येसु, त वयं वुम माहण ।