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पर से और दूसरे किसी के साथ अपणेश दिखानेरूप प्रणय से भी दूर हटकर पूर्णजागृतरुप हुवा करती है। श्री सिद्धपरमेष्ठी जी का स्मरण करना भी सेव्यसेवकभाव के कारण राजकथा में परिगणित हो रहता है फिर वहां आल्मस्मृति के सिवाय बाकी ही क्या रहजाता है १ खो इस शला का जबाव भी नीचे दिया जारहा है
ज्ञानं भवेदात्मनि चामच-जनस्यवाहातिशयान्महत्तः दरस्य सम्पश्य पुनः सुदृक्तत् पातिगंतण्डुलमत्ररक्त ।
अर्थात हे समझदार भाई सुनो तुम्हारा कहना ठीक है, जहां सच्ची अप्रमत्तावस्था होती है यहा पराये विचार से तो कोई सरोकार नही रहजाता है, परपदार्थों के प्रति होनेवाली इप्टानिष्ट कल्पना हो लुप्त प्राय होलेती है मगर उसके विचार में उसकी खुद की आत्मा ही रागद्वेषयुक्त होती है, जैसे कि धान्य को उखलकर उसमें से चावल निकाले गये, उनके उपर होनेवाले तुपोंको अलहदा करदियागया यों उसे खूटकर फटकने से सफेद सफेद चावल निकल आते है, अब अगर उनमे से कोई चावल जिसके कि उपर का छिलका दूर होकर भी उसपर रहनेवाली उसकी लाली दूर नहीं हटपाई तो उसको हम लालचावल समझते या कहा करते हैं कि और सब चावल तो मफेद हैं मगर यह चावल लाल है। बस इसी प्रकार उसके अनुभव में उसकी खुदकी आत्मा रागरक्षित पाया करती है,