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जीवको चाहिये कि अपने इस मिथ्यात्वको दूर करे। मिथ्यात्व
होजाना ही सम्यक्त्व है जो कि सुख देने वाला है, आनन्दस्वरूप है । सो जब यह जीवात्मा अपनी उस चिरन्तन भूल को सुधार कर ऐसा मानने लगजाता है कि सुख तो मेरे आत्मा का ही सहज स्वभाव है वह आत्मा को छोड़कर अन्यत्र कहां हो सकता है तो फिर व्यर्थ की इन बाहिरी बातो से दूर होता हुवा स्पष्टरूप से आत्मवल्लीन यानी अपने आपमें आत्ममात्रहो रहता है, उसीका नाम वास्तविक सम्यक्त्व है। मतलब यह कि विगड़ी हुई हालत का नाम मिथ्यात्व और सुधरी हुई सहज स्वभाविक शुद्धावस्था का नाम सम्यक्त्व है सो यह सम्यक्त्वदेवता सदा जयवन्तर हो । अब अन्तमै अपनो मनोभावना क्या है सो प्रकट करते है
- - भूयाजिनशासनं प्रभावि · राष्टे येन जनस्य विचार: मजुतमाचारेण च वाचि । ललितत्वेन समस्तु संयुतः ।।
अर्थात्- देश भरमें श्री जिन भगवान का शासन फैले सबलोग उसके माननेवाले बनें ताकि हरेक आदमी का विचार सदाचार सहित होते हुये भले व्यवहारयुक्त हो यही मेरी सद्भावना है।