________________
( १७५ )
-
-
-
जाता है तो इसी समय वह कट तो नहीं जाया करता, मगर धीरे धीरे कट रहा हुवा होता है, वैसे ही एक महर्षि की आत्मा मे जो प्रशस्तराग होता है वह शुक्लध्यानरूप समाधिद्वारा अप्टमादिगुणस्थानों में क्रमशः क्षीण होता रहता है।
समाधिनिरतत्वेन तत्वेनर्मधरः पुमान् वीतराग इवाभातिवालिशानां विचारतः ॥८॥ अर्थात्- हां यह बात जरूर है कि वह उत्तम सहनन का धारक महापुरुष उस समय समाधि में तत्पर हो रहने की वजह से शुद्धामपने को प्राप्त करने के बारे में उत्साह का धारक होता है, अपने उत्तरकाल में नियम से शुद्ध वीतराग हो रहनेवाला होता है, अतः स्थूलविचारवाले हम तुम सरीखा के विचार में वह ठीक वीतराग सरीखा ही प्रतीत होता है किन्तु उसके रागाश को जाननेवाले तो दीव्यज्ञानी महर्पिलोग ही होते हैं । जो हम बताते हैं कि
पुलाको वकुशः किंवा पष्ठे सप्तमकेऽपियः कुशीलतामनुप्राप्तः स पुमानष्टमादिषु ॥८८||
अर्थात्--मुमुनुमाधु पुलाक, वकुश, कुशील निम्रन्थ और स्नातक के भेद से पांच प्रकार का होता है जिसके कि गुण मूल गुण और उत्तरगुण के भेद से दो तरह के होते हैं, मूलगुण खाशगुणों का नाम है जिनके कि विना वह हो ही न सके और उत्तरगुण उन्हें कहा जाता है जिनके कि विकशित होने से वह