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बिना भी सम्यग्दर्शन फलीभूत नहीं होता । अस्तु । सम्यग्दर्श-. नादि में इस प्रकार सम्बन्ध होने से चारित्रमोहनीय का असर भी सम्यग्दर्शन पर रहता है ऐसा न मान कर अगर जोमिथ्यात्वतश्चेत् पर एव रागस्तदा विधीनां नवधा विभागः सम्यक्त्वमाधक्षतितोविभातिगुणोऽन्यनाशाकिमुनामजातिः
अर्थात् ~ श्रद्धान को और आचरण को विलकुल भिन्न मान कर श्रद्धान का घातक दर्शनमोह को और चारित्र का घातक चारित्रमोह को मानते हुये सर्वथा दर्शनमोह से चारित्रमोह को मिन्न कहाजावे तो फिर तो कर्मों के आठभेद न होकर नौ भेद हैं ऐसा कहना चाहिये और तब फिर सिद्ध अवस्था में जो सम्यक्त्वगुण प्रगट हुवा वह तो दर्शनमोहके नाश होने से हुवा, चारित्रमोहनीय के नाश से कौनसा गुण प्रगट हुवा सो भी तो देखो। किन्तु दोनों ही प्रकार के मोह का नाश होने से सम्यक्त्वगुण हुवा अतः दोनों कथंचित एक हैं और जब एक है तो चारित्रमोह के सद्भाव में सम्यक्त्व में अवश्य ही कुछ कमी होती है इस लिये सम्यक्त्व के जो सराग और विराग ऐसे दो भेद किये गये हैं सो वास्तविक ही है, एवं ज्ञानचेतना वीतरागसम्यक्त्वी के ही होती है, सरागसम्यक्त्वी के नहीं ऐसा कहना उपयुक्त ही है। ...
शङ्का- चतुर्थगुणस्थान में 'नव दर्शनमोह का उपशमादि होकर सम्यग्दर्शन होजाता है तभी उसका ज्ञान भी मिथ्याज्ञान