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हमारे शरीरमें कोई कांटा चुभ गया हुवा हो तो उसे निकालने के लिये वहां के शरीरके अंशको खुरचकर कांठे को ढीला करके निकाला जाता है । वैसे ही श्रद्धान के साथ में जो राग लगा हुवा होता है उसको उखाड़ बाहर किया जाता है इसी लिये वहां परं सम्यग्दर्शन को अनवगाढ माना है । जो कि सूक्ष्म सम्परांयनामक दशमगुणस्थान तक होता है इससे परेभावश्रुतज्ञानमतः परन्तु भवेद्यथाख्यातचरित्रतन्तु श्रद्धानमेवं दृढमात्मनस्तु गुणत्रयेऽतःपरमत्वमस्तु ॥८३||
अर्थात्-ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में जाकर श्रद्धान अवगादरूप बनता है जहां पर कि चारित्र पूर्णवीतरागतारूप आत्मतल्लीनता को लिये हुये यथाख्यात बन जाता है और श्रुतज्ञान भी भोवश्रुतज्ञान हो जाता है । क्यों कि वहां पर और सब बातों को भुला कर सिर्फ अपनी शुद्धात्मा के परिणामों का ही विचार रहेजाता है। उस समय इस आत्मा के उपयोग में शुद्धरूप आत्मभावों के सिवाय और कुछ नहीं होता अतः वास्तविक श्रुतकेंवली कहलाने का अधिकारी भी होलेता है जैसा कि समयसार जी मै बतलाया गया है देखो'जोहिमुयेणहि गच्छंह अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं 'सुयकेवलिमिसिणोमणन्ति लोयप्पईवयरा . _' यद्यपि क्षयोपशम की अपेक्षा से तो इसके द्वादशाङ्गज्ञान होता है क्योकि 'उसके बिना जैसा कि तत्वार्थसूत्र जी मे