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जन्म मरण के कारणभूत रागद्वेष को पार करके वीतरागता को प्राप्त कर लेते है वे जीव ज्ञानचेतनावाले होते हैं । इस पर फिर शङ्का होती हैअज्ञाननाशं प्रवदन्ति मन्तोद्दङ्मोहनाशक्षण एव जन्तोः अज्ञाननाम्नी ननु चेतनेति कुतोऽप्रमत्तादिगुणेऽम्युदेति ८५ ___ अर्थात्- कि जब दर्शनमोह का अभाव होता है तो उसी समय इस प्राणी के अज्ञान का यानी मिथ्याज्ञान का भी अमाव नियम से होजाया करता है इस विषय में सब सज्जनों का जहां एकमत है तो फिर उसका तो अभाव चतुर्थगुणस्थान में ही होलेता है फिर अप्रमत्वादि गुणस्थानों में अज्ञानचेतना बताई जाती है, वह कैसी ' इस बात का जबाबतइत्तरं तावदलीकबोधःप्रणाशमयाति न किन्त्वबोधः । अलीकबोधो हि कुदृष्टिधामारागादिमानेवमवोधनामा ८६
अर्थात्- यह कि चतुर्थगुणस्थान मे मिथ्याज्ञान का अभाव तो होजाता है किन्तु अज्ञान का प्रभाव नहीं होता। मिथ्यादृष्टि की अवस्था में समझरहा था कि जो शरीर है सो ही मै हूं इस प्रकार मोह की वजह से शरीर और आत्मा को एकमेक जानता था सो व्यर्थ विचार तो सम्यग्दृष्टि होते ही दूर होजाता है, परन्तु मार्गगामी पथिक भी दूमरे पथिक को अपना साथी मान कर उसके साथमें प्रेम दिखलाया करता है । वैसे ही यह फिर भी अपने शरीर को इस जन्म का साथी