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साहेब आप ऐसा क्यों कह रहे हो आपने उनमें ऐसी कौनसी बात पाई ताकि वे विचारे आदमी ही न समझे जावें। किसी को भी इस प्रकार बेकार कोशने से तो वह न भी है तो वैसा ही बन जाता है इत्यादि । इस, सम्यग्दृष्टि के इस वर्ताव से किसी को भी कोई कष्ट नहीं हो पाता और गलती खाने वाला
आदमी भी धीरे धीरे अपनी गलती को ठीक करले सकता है एवं मार्ग सुचारु और निष्कण्टक बन जाता है। अतः इसका नाम उपगृहनांग है। अब आगे स्थितिकरण का वर्णनश्रद्धानतश्चाचाणाश्च्यवन्तः संस्थापिताः सन्तु पुनस्तदना: अनेक विध्न प्रकरेऽत्र येन सन्मानसोत्साहवशंगतन ।।६।।
अर्थात्-श्रेयांसि बहुविनानि इस कहावत के अनुसार भली बातों में बाधाये तो अनेक आकर खड़ी होती हैं मगर साधक कोई विरला ही होता है ऐसी हालत में अगर कोई भोला आदमी सन्मार्ग पर लग, कर भी उस पर से चिग रहा हो या उसे ठीक नही पकड़ पारहा हो,उसपर चलने में असमर्थ हो रहा हो तो उसकी सहायता करना सम्यग्दृष्टि आदमी का काम हो जाता है । क्यों कि ऐसा करने से उसकी सन्मार्ग के प्रति रुचि प्रस्फुट होती है जिसका कि होना सम्यग्दृष्टि के लिये परमावश्यक है उसका जीवन है, अतः यह स्थितिकरण उसका अंग होजाता है । आगे वात्सल्य का वर्णन करते हैं