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और न चारित्र ही, अपितु तीनॉमय यह एक आत्मा ही है जब ये बिगड़े हुये हैं तो आत्मा ही विगड़ रहा है और इन नीनों के सुधरने से आत्मा ही सुधरता है और सुधार का नाम ही नम्यक्त्व है सो बताते हैंमम्यक्त्वमेतनगुणोऽस्त्यवस्थातपांचमिथ्यात्वमिवव्यवस्था । स्यूनिःसमंतूर्यगुणस्थलेऽनोभवेत्प्रपूतिर्मवसिन्धुसेतोः ॥ ७॥
अर्थात्- सम्यक्त्व यह उन गुणोंकी सुधरी हुई अवस्था का नाम है जैसा किं त्रिंगड़ी हुई हालत का नाम मिथ्यात्व । जहां भी सम्यक्त्व को गुण कहा गया है वह प्रशंसात्मकरूप में है जैसे किसी भी चीजके सुहाते हुये रूप को तो गुण कहते हैं, तो उसके न सुहाते हुये उसी रूप को हम अवगुण बहा करते हैं, वैसी ही बात यहां पर भी है। सौमिथ्यात्व अवस्था नो अनादि में चलीआई हुई है और सम्यक्त्व अवस्था चतुर्थगुणस्थान से सुरू होती है। मतलब यह कि जब इस जीव का संसार खतम होनेको होता है तो उन गुणोंकी बिगड़ीहुई हालत जहाँ से सुघरना सुरू होती है उसे चतुर्थगुणस्थान कहते है। वहां से मुघरते सुधरते जाकर वह चोदवें गुणस्थान में अपनी ठीक पूरीहालत पर पहुंचती हैं, जैसे कि कपड़ा धुलते धुलते कुछ देर में माफ हो पाना है । सो वह आत्मसुधार दो तरह से होता है-एक तो यनसाध्य, दूसरा उसके अनन्तर अनायास रूप से होनेवाला । सो ही बताते हैं