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और आचरण यानी मानना, जानना और अनुभवकरना ये तीनों बाते कोई छबड़ी मं भी आम, नीम्बू और नारंगी की भांति वस्तुतः आत्मा में भिन्न भिन्न है क्या ? किन्तु नहीं। ये तीनों तो आत्मा के परिणाम है जो कि आत्मा के साथ में अनुस्यूत है। सिर्फ इनके द्वारा आत्मा का विवेचन होता है जैसे कि अग्नि को जब हम किसी दूसरे को समझाना होता है तो उसके दाहकपन, पाचकपन और प्रकाशकपन के द्वारा उसे हम समझने और समझाने लगते है परन्तु जहां भी अग्नि के इन तीनो गुणो मे कुछ कमी आई, तीनों में से एक में भी अगर कुछ कमी आई कि खुद अमि मे ही कमी होजाती है, एवं जहां अग्नि में कमी आई,तो फिर उसके शेष गुणों में भी कमी होना सहज ही है । वस तो यही हाल दर्शनज्ञान और चारित्र के साथ में आत्मा का है जैसा कि समयसार जी की इस गाथा में कहा गया हुवा है देखो
वहारेणुवदिस्सइ गाणिस्स चरित्तदसणंगाणं णविणाणंण चरितंणदंसणं जाणगोसुद्धो ॥७॥ अर्थात्-आत्मा एक वस्तु है गुणी है और अन-तधर्मात्मक है। उस आत्माके दर्शनज्ञान और चारित्र ये तीनो खाशगुण हैं सो कहनेमात्र के लिये तो ये तीनो भिन्न भिन्न है । दर्शन यानी देखना या श्रद्धान करना! ज्ञान यानी जानना या समझना। चारित्र यानी चलना या लीन हो रहना । मगर जब गहराई से शोचे तो आल्मा से भिन्न न तो कोई दर्शन ही है न ज्ञान ही