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इत्यादि रूपन्चेष्टा को शुभयोग कहते हैं जिससे कि: पुण्य का बन्ध होता है। निरीहता से कायादि की चेष्टा का नाम शुद्धयोग है जिससे कि किसी भी तरहका-बन्ध न होकर इर्यापथिक आवमात्र होता है।
शरीर और आत्मा को एक मानते हुये इन्द्रियाधीनवृत्ति का नाम अशुभोपयोग है जो कि अनन्त संसार का कारण है। शरीर से आत्मा को भिन्न; नित्य ज्ञानस्वरूप मानते हुये एवं वीतरागता की तरफ मुकते हुये सद्विचार का नाम शुभोपयोग है जो कि परीतसंसारपन का साधन है । वीतराग भाव का नाम शुद्धोपयोगा है जो संसाराभावका साक्षात् कारणहै। इसमें से अभव्य जीव के और मिथ्याष्टिभन्य जीव के भी उपयोग तो अशुभ ही होता है किन्तु योग शुभ एवं-अशुभ पलटते रहते हैं। सम्यग्दृष्टि के अशुभोपयोग का अभाव होकर-शुमोपयोग फिर शुमोपयोग से- शुद्धोपयोग होता है यानी सम्यग्दृष्टि जीव के योग तो अशुभ: शुभ और शुद्ध ऐसे तीनों ही प्रकार का न्यथा सम्भव होता है, क्यों कि एक सम्यग्दृष्टिम्जीवा जिस समय युद्ध में प्रवृत होरहा होता है तो वहां उसके उपयोग में शुभकिन्तु योग अशुभ हुवाकरता है, वही जब भगवत्पूजनादि कायों में प्रवृत्त होता है। दो उपयोग और योग दोनों शुभ होते हैं और वीतरागदशा में उसके दोनों शुद्ध होजावें है। शक्षा - योग और उपयोग भिन्न भिन्न प्रकार के नहीं होसकते
दिलो कानजी की रामजी माणेकचन्द दोषी कृत-चत्वार्थ