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क्षीणे रागादि सन्ताने प्रसन्ने चान्तरात्मनि यः स्वरूपोपलम्म.स्यात् सशुद्धाख्यः प्रकीर्तितः ॥३शा०३ शहा- मिथ्यादृष्टि जीव जव तीव्र कषायके बस होकर खोटी चंप्टा करता है तो उसके पाप रूप अशुमोपयोग होता है।
और वही जव शुभलेश्यावान होकर अच्छी परोपकारादि रूप चेष्टा करता है तो उसके पुण्य रूप शुभोपयोग होता है। परन्तु जब रागादि की सन्तात क्षीण यानी हलकी हो लेती है अनन्तानुवन्धी रूप नही रहती उस समय उस अन्तरात्मा में अपने आत्मस्वरूप का उपलभरूप शुद्धोपयोग हो लेता है ऐसा अर्थ लेलिया जाये तो क्या हानि होती है ? उत्तर-प्रथम तो क्षीण शब्द का अर्थ विलकुल नष्ट हो जाना ही होता है और वास्तविक शुद्धोपयोग पूरी तोर से रागादि मावों के नाश होने पर क्षीणमोह नामक वारहवे गुणस्थान में ही होता है जैसा कि उपर्युक श्लोक मे लिखा गया है और वहीं स्वरूपोपलम्भ रूप स्वरूपाचारण चारित्र, जैसा कि अपने बहढाले मे दोलतराम जी ने भी लिखा है। फिर भी अगर तुम्हारा कहना मान लिया जाय और शुद्धोपयोग का आंशिक प्रारम्भ चतुर्थगुणस्थान से होलेता है ऐसा अर्थ उक्त शोक का लिया जाय एवं शुभोपयोग मिथ्याइष्टि अवस्था में ही होता है ऐसा समझा जाय तो वह ठीक नहीं बैठता क्योकि मिथ्यादृष्टि के वस्तुतत्व का चिन्तनरूप प्रशस्तध्यान कभी किसी हालत में नहीं होता ऐसा इसी ज्ञानार्णव प्रन्थमें आगे गुणदोष