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सम्यग्टष्टिपन स्वीकार करने पर ज्ञानावर्णादि कर्मों या कल्पस्थिति और अनुभाग लिये हुये बन्ध होने लगा था वैसे ही
व्रत अवस्था से इस देशव्रत समय में और भी कम स्थिति अनुभागयुक्त होने लगता है । चतुर्थगुणस्थान में भगवद्भजन सरीखा पवित्र कार्य करते समय भी उन दुष्कर्मों का वैसा अल्पबन्ध नही होता था जैसा कि इस पचमगुणस्थान मं जाने पर श्रीसम्पर्क करने के काल में हुवा करता है । क्यों कि कर्मबन्धन का हिसाब वाह्य प्रवृत्ति पर निश्चित न रह कर 'मनुष्य के कषायांशोंपर अवलम्बित माना गया है । कषाय इस पचमगुणस्थान की अपेक्षा चतुर्थगुणस्थान में हरहालत में अधिक ही होता है अतः बन्ध भी अधिक ही होता है इसी बात को उदाहरण से रपष्ट किया जाता हैलक्षाधिपस्यास्त्ययुतं शतं वा तथा कषाय प्रचयावलम्बात तत्रानुयुक्तोऽधिक एवं रागस्ततोऽमृतोऽत्यर्थमियात्स आगः ६५
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अर्थात् - जैसे एक लखपति है और दूसरा हजारपति तो लखपति में हजारपतिपन की भी ताकत है और शतपतिपन की भी । हजारपति में शतपतिपन को तो ताकत होती है मगर लखपतिपन की नही । वैसे ही मिध्यादृष्टि अवस्था में तो अनन्तानुबन्धि कपाय होनेसे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण बगेरह सभी कषाये होती हैं अतः उसके वैसा ही घोर कर्मों का बन्ध भी हर समय होता रहता है । सम्यग्दृष्टि