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जैन शासन में तो धर्म या मोक्षमार्ग, चतुर्थ गुणस्थान से सुरू हो जाता है जो कि सरागधर्म और पीतराग धर्म के नाम से दो भागों मे जरूर विभक्त किया हुवा है सो चतुर्थ गुण स्थान में सुरू होकर दशवे गुण स्थान के अन्त तक सरागधर्म होता है उससे ऊपर में वीतराग धर्म बन जाता है। अस्तु । प्रारम्भिक सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोक्त प्रशमादि भावों का धारक तथा निःशङ्कितादि अङ्गो का पालक होते हुये सदाचार का पक्षपाती होकर दुराचार का विरोधी हुवा करता है सो ही नीचे स्पष्ट करते हैंएवं सदाचार परोऽप्यपापी चारित्रमोहोदयतस्तथापि महानतेभ्योऽयमिहातिदूरः देश ब्रतानिक्रमितुन शरः ६२
अर्थात्- इस प्रकार ऊपर जिसका वर्णन किया जा चुका है वह अव्रत सम्यग्दृष्टि जीव पापों से यद्यपि दूर रहता है, सदाचार का पूरा हामी होता है फिर भी चरित्र मोह के तीब्रोदय के कारण महाव्रतों की तो कथा ही क्या किन्तु श्रावक के पालन करने योग्य बारह व्रतों को भी धारण करने के लिये समर्थ नही होता है। जैसे कि एक भले घरका नोजवान लड़का जिसकी कि अभी शादी नहीं हुई है वह यद्यपि स्वीप्रसङ्ग से दूर है फिर भी स्त्रीप्रसङ्ग का त्यागी नहीं है बस यही अवस्था इस अव्रत सम्यग्दृष्टि की होती है त्यागी या व्रती न होकर भी पापा चारी नहीं होता।