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सिवाय और कोई साधन नही है । अस्तु । जैनागमका अभ्यास करते २ जो अपने श्रद्धान को तात्विक बना लेता है उसमे प्रशमादि गुण सहज हो जाते है सोही नीचे वता रहे हैंतत्वार्थमाश्रद्दधतोऽमुक-यमहाशयस्यप्रशम:प्रशस्यः । वतःसमस्तेजगतोऽर्थभारेऽनुद्विग्नताऽनिष्टसमिष्टसारे ४८
अर्थात्- अपनं श्रद्धान को ठीक वना लेने पर एक तो उस महाशय के चित्त में प्रशम गुण स्फुरित हो लेता है। ताकि इस दुनियां के सम्पूर्ण पदार्थों में से किसी को भला और किसी को बुरा मान कर भयभीत नही बनता है । यद्यपि चरित्र मोह के उदय से जव तक कर्म चेतना या कर्मफल चेतना मय प्रवृत्त होता हुवा बुद्धि पूर्वक किसी भी कार्य को करता है तो उसमे बाधक होने वाले पदार्थ से बच कर उसके साधक कारण कलाप को अपनाये हुये रहता है, अपने अनुकूल निमित्त को इष्ट मानकर उसे प्राप्त करने और बनाये रखने की एवं प्रतिकूल निमित्त को दूर करने की चेष्टा भी करता है किन्तु पूर्व की तरह उन्ही के पीछे नही लगा रहता । जैसे कि सीता रामचन्द्र को बड़ी प्यारी थी, सब राणियों की शिर मोर सारी थी क्योंकि शील सन्तोषादि फूलों की फुलवारी थी परन्तु जब उसकी वजह से भी अवर्णवाद होता हुवा पाया तो झट उसे भी जङ्गल का राह दिखाया, उस पर जरा भी जी नही लुभाया वह उनके अन्तरङ्ग में होनेवालेप्रशमगुण की ही तो महिमा