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रत्नत्रय हो लेता है जैसा कि निम्न श्लोक में कहा है
आत्मा ज्ञवृतया ज्ञानं सम्यक्त्वं चरितं हि सः स्वस्थो दर्शन चारित्र-मोहाभ्यामनुपप्लुतः ॥७॥
तथा तत्वार्थसूत्र महाशास्त्र में श्री उमास्वामी आचार्य ने तो छडी अध्याय में
भूतव्रत्यनुक्म्पादानसरागसंयमादियोगः क्षांतिः शौचमिति सद्यस्य ।।१२।।
सरागसंयमसंयमासंयमाकाम
निर्जरा वालतपांसि देवस्य ।।२०।। सम्यक्त्वं च ।। २१ ॥ इन सूत्रों में विलकुल स्पष्ट कर रखा है कि-सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप धर्म सराग भी होता है और वीतराग भी, सो वीतराग धर्म तो सर्वथा अबन्धकर होता है किन्तु सराग धर्म की अवस्था मे घोर पूर्वबन्ध का अभाव होकर आगे के लिये प्रशस्त स्वल्पवन्ध होता है जो कि मुक्तिका अविरोधी, सहायक कारण होता है। और ऐसा ही खुद
श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी तो श्री प्रबधनसारमें लिखा है देखो'.. सम्पन्नदि णिव्यायं देवासुरमणुयराय विहवेहि
जीवस्स चरित्तादो दंसपणाण प्रहाणादो ॥६॥
अर्थात्- सम्यग्दर्शन और ज्ञान सहित होने वाले चारित्र गुण के द्वारा इस जीव को, देव विद्याधर और , भूमिगोचरियों के राज्य वैभव के साथ साथ निर्वाण सुख की