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संलग्न होता है और धर्म के प्रति होनेवाली अपनी रुचि को पुष्ट बनाता है। आगे अमूढ दृष्टि अंग का वर्णन किया जा
नमोहमायातिकुयुक्तिमिर्य:पृथञ्जनाना, सुपपत्तिवीर्यः सर्वत्रदेवागमगुर्षभिज्ञासदैव भूत्वा गुणतोनतिज्ञः । ५७॥ अर्थात्- जो देव यानी परमात्मा, आगम यानी निदोंप शिक्षण
और गुरुयानी साधु इन के म्वरूपको अच्छी तरह जानता है। मत्संग स्वानुभव और युक्तियो के द्वारा जिसका ज्ञान परिपक्व बन चुका है अतः जो सर्वसाधारण लोगों की बातों में या धूर्त लोगों की कुतों में फंसकर कभी भी उथल पुथल नहीं हो पाता है एवं उहण्ड तो नहीं मगर हरेक के आगे माथा लुढ़ काने वाला भी नहीं होता किंतु जिसमें जैसा गुण देखना है उसका वैसा आदर अवश्य करता है सदा और सब जगह हंस की भांति विवेक से काम लेने वाला होता है वह अमूढ दृष्टि अंग का धारक कहा जाता है । अब यहां पर प्रसंग पाकर संक्षेप में क्रमशःदेव, शास्त्र और गुरु का स्वरूप बताया जाता है उसमे पहले देव का स्वरूप
रागादिदोपानुच्छिद्य सर्वज्ञत्व मधिष्ठितः
विदेहभावनिर्देप्टा परमात्मा प्रसिद्ध यति ॥ ॥ अर्थात्-जिस श्रात्मा ने अपने अन्दर अनादिकालसे निरन्तर रूप से उत्पन्न होते रहने वाले राग द्वेप मामात्सर्यादि विकारी