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और व्यवहार यह भेद क्यों और कैसा इस पर लिखा है - श्रद्धानाधिगमोपेक्षाः शुद्धस्य स्वात्मनो हि याः सम्यक्त्व ज्ञान वृत्तात्मा मोक्ष - नार्गः सनिश्वयः ||३|| अर्थात् - अपनी शुद्धात्मा के साथ एकता तन्मयता लिये हुये तत्वों का श्रद्धान रखना, जानना, और उपेक्षा करना रूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का होना सा निश्चय मोक्ष मार्ग है किन्तु इससे पहले
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श्रद्धानाधिगमोपेक्षा याः पुनः स्युः परात्मना
सम्यक्त्वज्ञान वृत्तात्मा समार्गो व्यवहारतः ||४||
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भिन्न रूप से सातों तत्वो का श्रद्धान, ज्ञान और उपेक्षण रूप सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र होता है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है । मतलब यह हुवा कि जब तक यह प्राणी जीवादि सातो तत्वों को अपने उपयोग में जमा किये हुये रह कर उनका श्रद्धान ज्ञान पूर्वक उनसे उपेक्षा धारण करता है तो वहां और भी कहीं नही तो अपने आप (आत्म द्रव्य) में उपादेय बुद्धि बनी हुई रहती है जो कि रागांशमय होती है। अतः वहाँ तक की इसकी चेष्टा को व्यवहार धर्म या मोक्ष मार्ग कहा जाता है परन्तु इससे आगे चल कर जहां पर अपनी शुद्धात्मामय ही उपेक्षण ( चारित्र) होलेता है यानी आत्मा पर की भी उपादेय बुद्धिरूप सविकल्प दशा दूर होकर पूर्ण वीतरागरूप शुद्ध दशा हो लेती है उस अवस्था का नाम निश्चय मोक्षमार्ग है। जहां पर कि दर्शन है की भांति चारित्रमोह भी नष्ट होकर अभिन्न