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प्राप्ति होती है यानी सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित- चारित्र रूप जो धर्म है वह दो प्रकारका होता है एक सराग और दूसरा विराग उसमे सरागधर्म से अशुभ वन्ध का अभाव होकर प्रशस्तशुभयन्ध होता है ताकि यह जीव इन्द्रतीर्थकर चक्रवर्ति सरीखे पट पाकर फिर निर्वाणषद प्राप्त करने का पात्र होता है और वीतरागधर्म से तो उसी भव में मुक्त हो लेता है । जैसा कि तात्पर्यवृत्ति में भी लिखा है
आत्माधीन-मानसुखस्वभावे शुद्धात्मद्रव्येयनिश्चलनिर्विकारानुभूतिरूपमवरथानं तल्लक्षणनिश्चयचारित्राजीवस्य सम्पद्यत पराधीनेन्द्रियजनितज्ञानसुखविलक्षणं स्वाधीनातीनियरूपपरमज्ञानसुखलक्षणं निर्वाणं । सरागचरित्रात्पुनर्देवासुरमनुष्यराज्यविभवजनको । मुख्यवृत्याविशिष्टपुण्यवन्धो भवति परम्परया निर्वाणंचेति ___ इसके अलावा अगर वीतरागताको ही धर्म कहा जावेगा तो फिर दशगुण स्थान तक के सभी जीव धर्मशून्य ठहरेंगे किन्तु धर्म का प्रारम्भ चोथे गुणस्थान से ही होलेता हैशा-चतुर्थादि गुणस्थानों में भी आत्माके जितने जितने
अंशमें वीतरागता हो लेती है उतने उतने अंश में . वहां भी धर्म होता है और जितने जितने अंश में
राग रहता है उतने अंशमे अधर्म,इसमें क्या बात है? उत्तर- तो फिर जहां पर राग है वहां, (उसी आत्मा में) धर्म भी तो होगया । एवं दोनों का एक साथ एक आत्मा में रहना