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जैनागमानुसारसे किया जाता है इत्यादि । तथा द्वादशानुप्रेक्षारूप संस्थान विचयधर्मध्यानमे भी पांचों ही भावोंका चिन्तवन यथास्थान होता है। अतः मानना ही चाहिये कि धर्मध्यान जो होता है वह औपशमिकादि सभी भावों के विचारों को विषय लेकर प्रसूत होता है। जो कि धर्मध्यान चतुर्थादि गुण स्थानोंमें होकर प्रशम संवेगादि सद्भावों को प्रस्फुट करने वाला होता है एवं सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व को इतर छद्मस्थलोग इन प्रशमादि भावों के द्वारा ही जान सकते हैं ऐसा नीचेबताते हैंसम्यक्त्वमव्यक्तमपीत्युदारैर्व्यक्तीभवत्येव जगत्सु सारैः अष्टविहाङ्गानि भवन्ति तस्य समुच्यतेयानिमया समयस्य ५३
. अर्थात- सम्यग्दर्शन यह आत्मा का परिणाम है जो कि उत्पन्न होकर भी आत्मा में अव्यक्तरूप रहता है, सर्वसाधारण की निगाह में आनेकी यह चीज नही है । मगर उपयुक्त प्रशमादिभाव जो कि उदारतारूप होते हैं सो इनके द्वारा हम उसको पहिचान सकते हैं। जैसे रसोईघर में छिपीहुई.अग्निको, उसमें से होकर उपर आकाश में फैलने वाली धूवां के सहारे से जानलिया जाता है । यद्यपि प्रशमादिभाव नाम मात्र के लिये कभी कभी मिथ्यादृष्टि में भी होजाया करते हैं किन्तु वे सब और ही तरह के होते हैं, जैसे कि वामी से उठनेवाली धूसर धूवां सरीखी होकर भी धूवा की बराबरी नही करसकती ज़रा भी गोर करने पर उसमें स्पष्ट भेद दिख पड़ता है अतः