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चिन्तवन अनुमनन धर्मध्यानमे हुवा करता है जैसे कि अपापविचय मे उस जीव को गिरी हुई हालत का और विपाक विचय में कर्मो के फल का यानी औदायिक भाव का विचार रहता है इसी प्रकार से और भी समझ लेना चाहिये। शङ्का- कानजी की (रामजी माणेकचन्द दोपी द्वारा लिखित) तत्वार्थसूत्र टीका मे प्रथमाध्याय की दूसरे सूत्र की टीका मे पृष्ठ १५ मे लिखा है-- ध्यान रहे कि सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा कमी नही मानता कि शुभ राग से धर्म होता में या धर्म में सहायता मिलती है । एवं कान जी कहते है कि वीतरागता का नाम ही धर्म है सरागता में धर्ममानना मिथ्या है। उत्तर- भैय्या जी हमारे मान्य आचार्यों ने तो वीतरागतां को ही धर्म न मानकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म बतलाया है जो कि सराग और वीतराग दोनो तरह का होता है । हां यह वात दूसरी कि सराग धर्म यानी व्यवहार मोक्ष मार्ग जो है वह साधनरुप होता है और वीतराग धर्म यानी निश्चय मोक्ष मार्ग, उसके द्वारा साध्य अर्थात्-सराग धर्म पूर्वज है तो वीतरागधर्म उसके उत्तरकाल में होने वाला दोनों में परस्पर कारण कार्य भाव है ऐसा हमारे इतर ग्रन्थ प्रणेता प्रामाणिक आचार्यों ने तो सभी ने लिखा ही है परन्तु परमाध्यामरस के रसैय्या श्री अमृतचन्द्र सूरि ने भी अपनी तत्वार्थसार नाम कृति मे ऐसा ही लिखा है
निश्चय व्यवहाराभ्यां मोक्षमागी द्विधास्थितः।