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सबेरे ही हम उनके दर्शन करने को चलेगे और अगर कहीं कोढी निकले तो फिर उनका वहिष्यकार करना होगा। इस पर मन्त्री को बडीमारी चिन्ता हुई कि हाय अब क्या किया जाय, मुनिमहाराज पर सवेरा होते ही उपसर्ग आवेगा वह कैसे दूर हो ऐसी । वस तो सम्यगद्रष्टि जीव के जहां कही भी आर्तरोढ परिणाम होते है वे सब ऐसे ही सद्भावनात्मक होते हैं। मिथ्यादृष्टि की भांति एकान्तरूप से अपने शरीर और इन्द्रियों के सन्तर्पणरूप दुर्भावना को लिये हुये कभी नही होते । अस्तु । शङ्का - सम्यग्दृष्टि के प्रशमादि गुणों को आपने धर्मध्यान
बतलाया सो हमारी समझ में नही आया क्योंकि प्रशमादि भाव तो शुभ राग रूप होते हैं, शुभ राग को धर्ममानना तो भूल है, धर्म तो आत्मा के स्वभाव का नाम है शुद्ध सहज वीतराग माव का नाम है जिसका
किचिन्तवन करना ही धर्मध्यान कहा जाना चाहिये। उत्तर- धर्म, आपके सहज शुद्ध पारिवामिक भाव का ही नाम न होकर भाव मात्र का नाम धर्म है । धर्म परिणाम भाव अवस्था परिस्थिति अन्त और तत्व ये शब्द एकार्थ वाचक हैं। जो कि जीव के भाव संक्षिप्तरूप से औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक इस तरह पांच भागों में विभक्त किये गये हैं, जैसा कि श्री तत्वार्थसूत्र महाशास्त्र में चवलाया गया हुवा है एवं इन पांचों ही तरह के भावों का