________________
(
)
अर्थात्- सम्यग्दृष्टि जीव के उपर्युक्त-प्रशम, सम्वेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चारों भावों का क्रमशः आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामक धर्म ध्यानों के माथ मं कार्य करण सम्बन्ध है आज्ञा विचयादि धर्म ध्यान कारण रूप होता है और प्रशमादि भाव उसका कार्य क्योंकि वाह्य पदार्थो में इष्टानिष्ट कल्पना का न होना या कम से कम होना सो प्रशम भाव है जो कि श्री अरहन्त भगवान की आज्ञानुसार न तो कोई पदार्थ इष्ट ही है और न अनिष्ट ही इस प्रकार के विचार को लेकर प्रसूत होता है। विषय भोगों में अनुसेक भाव का होना सो सम्बेग है जो कि इन विषय मोगों में फंस कर ही यह दुनियादारी का जीव अपना,अपाय यानी बुरा करता है बिगाड़ कर जाता है इस प्रकार के धर्म ध्यानमूलक होता है। किसी भी जीव को दुःख सङ्कट में पड़ा देख कर उसके उद्धार का भाव होना अनुकम्पाभाव है सो इस के पूर्व में ऐसे विचार का होना अवश्यम्भावी है कि देखो यह अपने पापोदय से कैसा कष्ट मे पड़ा हुवा है और ऐसे विचार का होना ही विपाक विचय धर्म ध्यान है जिसके कि होने पर उसे उस कष्ट से मुक्त करने की चेष्टा की जाती है। संस्थान विचय तो पदार्थ के स्वरूप पर विचार करने का नाम है जो कि आस्तिक्यभाव का मूलाधार ही है एवं ये चारों ही भाव धर्म ध्यानमूलक हुवा करते हैं जिनमें कि यह सम्यग्दृष्टिजीव परिवर्तित होता रहता है और जहां इन से पार हुवा कि