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अभ्यास को दोष है क्योंकि । यथावलं बुद्धिरुदेतिजन्तोरज्जूवदस्योदलितु समन्तोः । तामस्तुवस्तुप्रतिपस्विरेवसमाहसम्यग्जिनराजदेवः । ४७॥
अर्थात्- रागद्वेष वाले इस संसारी जीव की बुद्धि एक रस्सी सरीखी है । रस्सीको जिधरका जैसा बल मिलता है उधर की ही तरफ उसका घुमाव होता रहता है एवं पूर्व वल के अनुसार उधर की तरफ को उस का घुमाव एक अनायास सरीखा हो जाया करता है फिर उसको अगर उवलना चाहे उसमे दूसरा वल लाना चाहें या उसे एधेड़ना चाहे तो वह कठिन सा हो जाता है जरासी असावधानता में हाथ मे से छूट कर वापिस उधर को ही घूम जाया करती है वैसे ही इस संसारी जीव की बुद्धि को अनादि काल से परपरिणति का वल प्राप्त हो रहा है अतः उधर की तरफ का घुमाव इसके लिये एक सहज सा बन गया हुवा है अव उसको वदल कर उसमें दूसरा वल रदि लाना चाहे, उसे स्वभाव की ओर घुमाना चाहे तो घुमाते घुमात भी खिशक कर अपने चिर अभ्यास के कारण परपरिणति पर ही चल पड़ती है सरल नही रहती है। अतः वस्तुरवरूप खूटे में उसे अटका कर विचार रूप हाथ में दृढ़ता' के साथ थाम्म वर पुनः पुनः घुमाग जावे तो कहीं वह ठीक हो पाती है ऐसा जिन भगवान का कहना है। मतलव उसको ठीक वनाने के लिये इस प्रकार तत्वाभ्यास के