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भवन्निजापत्तिषुवज्रतुल्यःसञ्जायतेऽसौनवनीतमूल्यः । दीनंदरिद्र खलुदु:खिनम्बाऽवलोक्यचित्त करुणावलम्बात् ५०
अर्थात्- जब धवल सेठ के दिये हुये प्रलोभन से भाण्डों ने श्रीपाल को अपना भाई बेटा बताकर गुणमाला के पिता कुकुमेश को बरगलालिया तो राजा की आज्ञानुसार श्री पाल जी निःसङ्कोच होकर शूलीपर चढन को चल दिये किन्तु फिर जब सत्य बात खुल गई और राजा ने अपनी आज्ञा बदल कर श्रीपाल के स्थान पर धवल सेठ को और उन भाण्डों को मार डालने के लिये कहा तो श्रीपाल जी ही दयाद होकर राजा से कहने लगे कि राजन्- इन भाण्डों का तो दोष ही क्या है ? ये बिचारे तो दीन अनाथ हैं इनका वो यह पेसा है और धवल सेठ जी मेरे धर्म पिता हैं इन्होंने तो मेरे लिये जो कुछ किया है, अच्छा ही किया है अगर ये ऐसा न करते तो मेरा
आपके साथ सम्बन्ध कैसे बनता यों कह कर सब को बरी करा दिया सो बस यही बात इस वृत्त में बतलाई गई है कि सम्यग्दृष्टि जीव अपने आप पर आई हुई आपत्ति में तो वन की तरह कठोर बन जाता है किन्तु दूसरों को दुःख सङ्कट में पड़े देख कर मक्खन की सी भांति पिघल पड़ता है यही उसका अनुकम्पा गुण है क्योंकि वह यह अच्छी तरह से जानता है कि यह शरीरधारी जीव अपने किये का फल आप ही पा लेता है सो ही बताते हैं -