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होता है जैसे कि सूका काष्ट ईंट बगेरह भी कभी अपने कारणकलाप को पाकर इधर उधर हो जाता है सो उससे यहां पर कोई प्रयोजन नही है । तथा निरीह आत्मा की जो चेप्टा होती है जैसे कि मुक्त होने ही यह आत्मा उपर को गमन कर लोकान्त तक जाती है उसको भी यहां नहीं लिया गया है । यहां पर तो इच्छावान् आत्मा की चेप्टा होकर उसके द्वारा जो सूक्ष्म पुद्गल परमाणु समूह उसके साथ मिलकर उसको दुःखी सुखी बनाने में सहयोग कारक होते है उनको कर्म कहा जाता है और उस आत्मा को उन सब का कर्ता सो ही नीचे के वृत्त में बताया जा रहा है
इदं करोमीवित जीवनर्म विकल्पबुद्धौ क्रियते च कर्म । द्वयोरवस्थानृकलत्रकल्पामिथः मदाधारक धार्य जल्पा |२६|
अर्थात् — मैं खाता हूं, पीता हूं, सोता हूं, मै मारता हूं, काटता हूं, पीटता हॅू इत्यादि विकल्प मे पड़ कर इस आत्मा का जो राग द्वेष रूप परिणाम होता है उसका करने वाला अगर वस्तु स्थिति पर विचार करके देखा जावे तो यह आत्मा ही है दूसरा कोई भी नही है । यद्यपि वाह्य पदार्थ इसमे निमित्त जरूर बनता है फिर भी उस भाव के होने देने और न होने देने का उत्तरदायित्व इस जीवात्मा पर ही है । जैसे मानलो कि एक जीमनवार में एक साथ तीन कोई भोजन परोसा गया और उसके खाने की प्रेरणा भी की
आदमियों को