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शङ्का-क्या गुरु के विना ज्ञान नहीं हो सकता । ज्ञान तो आत्मा का गुण है उसकेलिर गुरु के होने की क्या श्रावश्यकता है ? उत्तर--ठीक है ज्ञान तो आत्मा में ही है परन्तु उसकी मिथ्यात्व से सम्यक्त्य अवस्था गुरु दिना नहीं हो सकतो जैसे कि बन्द होगया हुवा ताला, चाबी के बिना नहीं खुल सकता, चाबी के द्वारा ही खोला जा सकता है। शंका -श्रीतत्वार्थसूत्र जी में बतलाया है कि तनिसर्गादधिग
मावा, अर्थात् - वह सम्यग्दर्शन गुरूपदेश से भी होता
है.और किसी को अपने आप भी। उत्तर - उक्त सूत्रका अर्थ तो यह है कि वह सम्यग्दर्शन अपने स्वभाव से भी और गुरूपदेश से भी इन दोनों ही बातों के होने से होता है दोनों में से एक भी न हो तो नही होसकता । जैसे कि पक्षी, आदमी की बोली सिखाने से सीखता है किन्तु सखाने से भी तोता ही सीख सकता है, बगुला नही सीख सकता वैसे ही सम्यग्दर्शन होता है श्री गुरु की वाणी के सुनने से किन्तु होता है आसन्नभव्य को, अमव्य को नहीं होता । देखो श्री आदिपुराण जी मे महाबल (वनजंघ) के जीव भोगभूमियां को सम्यग्दर्शन प्रहण कराने के लिये श्री मुनिराज भोगभूमि में चला कर गये थे अगर अपने आप ही सम्यग्दर्शन होजाता होता तो उन मुनि महाराज को वहां जाने की फिर क्या आवश्यकता थी।