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तो उसके साथमे आंशिक चारित्रमोह-अनन्तानुवन्धि क्रोधमान माया लोम का भी प्रभाव हो लेता है जब कि सम्यग्दर्शन होता है । अतः सम्यक्त्व शब्द से भी अधिकतर सम्यग्दर्शन को ही लिया जाता है जिसके कि साथ अन्यायाभक्ष्य मे अप्रवर्तनरूप चारित्र होता ही है । जो कि सम्यग्दर्शन उपर्युक्त परिकर होने से सम्पन्न होता है । आत्मा एक रेलगाड़ी की भांति है जो कि मोक्ष नगर को जाना चाहती है और उसका मोक्ष के सम्मुख रवाना होना सम्यक्त्व है । उसमें काललब्धि तो रेल की पटरी सरीखी है जिसके कि विना रेल नही चल सकती वैसे ही काललब्धि पाये बिना सम्यक्त्व भी नही होता क्षयोपसमलब्धि का होना-सज्ञिपने का पाना सो रेल के पहियों सरीखा है जिसके कि होने से आगे बढा जा सकता है। देशनालब्धि सीटी का काम करती है जो कि सुझाव देती है। विशुद्धि लब्धि लेन सफाई का सा कार्य करती है ताकि आगे बढ़ने में कोई रुकावट नही रहे । प्रायोग्यलब्धि कोयला और जल का या वायलर का काम करती है जो कि शक्ति प्रदान करती है किन्तु करणलब्धि चावी या हैण्डिल का काम करती है जिसके कि घुमानेसे रेल चल ही पड़तीहै । अस्तु । सम्यक्त्व होने पर इस आत्मा की कैसी चेष्टा होती है सो बताते है
तत्वार्थमाश्रद्दधतोऽस्यदूर-वर्तित्वमन्यायपथान्मृदूरः । जानाति भोगान्रुजिजायुमेल-तुल्यानतोनत्यजतीष्टखेलः ॥२६