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अपना भला कर सकता हूं। इस विचार पर नही जम पाता कि मेरा आत्मा मिन्नद्रव्य है और यह शरीर युद्गल परमाणुवा का पुञ्ज है. इसका मेरे साथ मे वास्तव मे क्या मेल है कुछ नही । प्रत्येक द्रव्य भिन्न भिन्न होता है एक द्रव्य दूसरे के साथ मिलकर कभी एक नही होजाता और जब एकता नहीं, वहां कौन किसका सुधार और विगाड़ कर सकता है। इस शरीर के परमाणु अपने रूपसे शाश्वत हैं तो मेरा श्रात्माभी अपने रूपमे शाश्वत सदा रहने वाला है इस प्रकार द्रव्य दृष्टि को अपनाने से सम्यग्दर्शन होता है। हां आत्मा के विकार होने मे विकारी पुद्गल - परमाणु समूह निमित्त रूप हो सकता है किन्तु द्रव्य की अपेक्षा से देखा जाय तो प्रत्येक परमाणु भी पृथक पृथक् ही हैं। दो परमाणु कभी भी मिल कर एक नहीं होते और एक पृथक परमाणु कभी भी विकारका निमित्त कारण नहीबन सकता अर्थात् द्रव्य दृष्टि से कोई द्रव्य अन्य द्रव्य के विकार का निमित्त नही होता बल्कि द्रव्य हटि से देखा जाय तो विकार कोई चीज है ही नहीं । जीव द्रव्य में भी द्रव्य दृष्टि से नही किन्तु पर्याय दृष्टिसे विकार है। मतलव इस जीव की वर्तमान अवस्था राग द्वेप रूप हो रही है उसमे कर्मोदय निमित्तकारण जरूर है किन्तु पर्याय तो क्षणस्थायी है। अतः उसे गौरा करके द्रव्य द्रष्टि से देखा जाय तो कर्म फिर चीज ही क्या है कुछ भी नही, कर्म तो पुद्गल परमाणुवी के स्कन्ध विशेष का नाम होता है और द्रव्यत्वेन प्रत्येक परमाणु भिन्न २ हैं स्कन्ध होते