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अर्थात् - तस्य भावस्तत्वं वस्तु के स्वरूप का नाम तत्व है और उससे जो प्रयोजन सधे, वस्तु के स्वरूप से जो काम निकले उसे तत्वार्थ एवं उस तत्वर्थ का जो श्रद्धान करे उसे माने उसे तत्वार्थ श्रद्धानी कहते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव तत्वार्थश्रद्धानी होता है । मिध्यादृष्टि वस्तु के स्वभाव को नही मानता आत्मा के सहज भाव को स्वीकार नही करता और न वह अजीव पुद्गल के ही स्वभाव को समझता है। उसकी तो दृष्टि संयोगीभाव पर रहती है । शरीर सहित चेतन को ही आत्मा यानी जीव और इनदृश्यरूप पुद्गल स्कन्धों को अजीव मानता है । ये कीड़ी मकोड़ा पशु पक्षी देव नारकी और मनुष्य ये तो जीव है तथा ईट पत्थर चूना वगेरह अजीव हैं वस और कुछ नहीं ऐसा समझता है । अथवा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पृथक् २ पञ्चभूतों के मेल से वने हुये इस सचेप्ट शरीर को ही जीव समझता है । इस लिये यह कीड़ा मकोड़ा या यह मनुष्य मरगया अर्थात् जीव नष्ट हो गया एवं यह जल में मैंडक, गोवरमें दीमक, घृत में गिंडोला और विष्ठा मे गुड़वाणियां कीड़ा पैदा होगया । अर्थात् इनसे ही जीव निपजगया ऐसा मानता है । थोड़ा अगर आगे बढ़ा तो मानता है कि यह शरीर तो मिट्टी का पुतला है और आत्मा रूप रस गन्धादि से रहित एक व्यापक है सर्वत्र है यह भी संयोगी भाव ही हुवा । अथवा परब्रह्म एक है यह सब उसीकी माया है यह भी संयोगी विकारी भाव हुवा इत्यादि