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फल दिखलाती रहती है ताकि उसके सम्यग्दर्शन का घात न होकर उसके परिणामों में चल बिचलपना होता रहता है। जैसे कि बुढ्ढ़े के हाथ मे होने वाली लाठी अपना कार्य करती हुई भी स्थिर और दृढ़ न होकर हिलती हुई रहा करती है। बाकी के औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के परिणाम सुदृढ और निर्मल होते हैं जैसे कि जवान आदमी के हाथ मे होने वाली तलवार अपना कार्य अच्छी तरह से करती है । अस्तु । इस सम्यग्दृष्टि की भी चेष्टा कैसी होती है सो ही संक्षेप मे आगे बता रहे हैं
यं पुनर्लोक पथेस्थितोऽपि न सम्भवेत्तात्विकवृत्तिलोपी नजङ्गमायाति सुवर्ण खण्ड: पढ्के पतित्वेव लोह दण्डः | ३५ |
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अर्थात्- यह उपर्युक्त सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका है फिर भी चरित्रमोह का अंश इसकी आत्मा मे अभी विद्यमान है इस लिये प्रवृत्ति इसकी ठीक जैसी होनी चाहिये वैसी अभी नही हो पाई है । यद्यपि जान चुका है कि यह शरीर मेरे से या मेरी आत्मा से भिन्न है तथा जितने भी ये माता पिता स्त्री पुत्रादि रूप सांसारिक नाते हैं वे सभी इस शरीर के साथ हैं ऐसा, फिर भी इस शरीर के नातेदारों को ही लोगों की भाति अपने नातेदार समझते हुये उनके साथ में वैसा ही वर्ताव किया करता है। तो भी अपनी उस तात्विक श्रद्धाको खो नही डालता है वल्कि इस व्यावहारिक