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होता है । चकारसे क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन भी होताहै जोकि क्षयोपशम से होता है । वर्तमान काल मे उदय आनं योग्य कर्मों के सर्वघाति स्पर्द्धको का तो उदयाभावी क्षय हो, वे अपना कुछ भी असर श्रात्मा पर न दिखा कर वेकार होते जा रहे हों
और देशघाति सड़कों का उदय हो अर्थात् वे अपना प्रभाव दिखाते रहते हो किन्तु आगामी काल मे उदय आने वाले स्पर्द्धकों का सदयस्थोपशम हो यानी उनकी भी सदीरण न हो आवे ऐसी कर्मों की अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं। मतलव कि आत्माके ज्ञानावरणादि पाठ कर्मोमे से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, माहनीय और अन्तराय ये चार कर्म तो घाति कर्म कहलाते हैं क्यों कि ये आत्मा के ज्ञानादि गुणों का घात करते हैं। वाकी के चार कर्म अघाति होते हैं क्यों कि वे स्वमुख से आत्मगुणों का घात नहीं करते किन्तु उन्हीं घाति कर्मो की सहायता करते हैं । सो उन घाति कमों में दो तरह के स्पर्द्धक होते हैं, एक तो सर्वघाति जो कि आत्मगुणों को पूरीतोर से घातते हों और देशघाति जो कि आत्मगुणों का
आंशिकरूप में घात करते हों । एवं सम्यक्त्व को न होने देने वाली-उपयुक्त सात प्रकृतियों में से एक सम्यक्प्रकृति तो देशांति है, वाकी की छः प्रकृतियां सर्वधाति । सो क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के उन छः प्रकृतियों का तो विपाकोदय न हो कर सिर्फ प्रदेशोदय होता रहता है उनके स्पर्द्धक तो मृत प्राय होकर निकलते रहते हैं किन्तु एक सम्यक्प्रकृति अपना