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हो पाता। हां इसकी अपेक्षा से वह धर्मात्मा होता है जो कि अव्रत सम्यग्दृष्टि है, देखने में किसी भी प्रकार का त्यागी नहीं है । खाना, महरना,त्री प्रसंग करना बगेरह सभी तरह के कार्य करता है परन्तु अन्तरंग में क्षमता को लिये हुये रहता है। उचितपने से हट कर अनुचित पन की ओर कभी भी पैर नहीं रखता इस प्रकार धर्म का धारक होता है जिस धर्म से कि मिथ्या दृष्टि मर्वथा रहिन होता है। धर्मेणवसंध्रियतेऽत्रवन्तु नवस्तुसत्वतमृतेसमस्तु । धर्मोनमिथ्याशिएतानि:किस्यादितीकक्रियतेनिरुति:४३ __ अर्थात् इस पर शङ्काकार का कहना है कि धर्म का धर्मी के साथ मे जव नादात्म्य सम्बन्ध होता है तो धर्म के न होने से तो फिर धर्मी भी नहीं रह सकता इस लिये मिथ्यादृष्टि की आत्मा में धर्म विलकुल नहीं होता यह कहना कैसे बन सकता है इसका उत्तर निम्न प्रकार हैनात्माऽस्यदृष्टीभवतीतितावदन्यत्रचेतस्यकिलात्मभावः । अधर्मवामित्यतएतिसत्यमसौस्वभावात्सुतरांनिपत्य ॥४४॥
अर्थात्- धर्मके सर्वथा नही रहने पर तो धर्मी आत्मा का भी प्रभाव हो जाना चाहिये ऐसा तुम्हारा कहना ठीक ही है. संसारी जीव की दृष्टि में आत्मा भी कहां है । इसको समझ में तो आत्मा का अभाव ही है यह तो आत्मतत्व को स्वीकार