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अर्थात्- सम्यग्दर्शन होने से पूर्व में आज तक जो यह जीव पर्याय दृष्टि हो रहा था, अपने शरीर को ही अपना स्वरूप समझ रहा था, देह को ही आल्मा माने हुवे वैठा था, इस शरीर से भिन्न श्रात्मा को कोई चीज नहीं समझता था अतः इस शरीर को ही मोटा ताजा और सुडोल बनाने में जुटा हुवा था एवं जव शरीर से न्यारा आत्मा कोई चीज नहीं तो परलोक स्वर्ग और नरक वगेरह फिर रहेही क्या ? कुछ नही इस लिये निःसंकोच होकर पाप पाखएड करने में जुटरहा था, अपने इस शरीर को पुष्ट करने के लिये दूसरों की ज्यान का दुश्मन बना हुवा था । अपनी ज्यान बहु मूल्य किन्तु दूसरे की ज्यानका कोई भी मूल्य नही अतः इसकेलिये भक्ष्याभक्ष्यका विचार तो कुछ था ही नही, सर्व भक्षी बन रहा था। चोरी चुगलखोरी करके भी अपना मतलब सिद्ध करने में लग रहा था कोई भी प्रकार की रोक थाम तो इसके दिल के लिये थी ही नही निरंकुश निडर हो रहा था अगर डर था तो इस बात का कि यह शरीर विगड़ न जावे १ कोई दूसरा आदमी मुझे कुछ कप्ट न दे बैठे २ इस शरीर में कोई रोग वेदना न हो जावे ३ और भी न मालूम किस समय कौनसी आपचि मुक (इस शरीर) पर आपड़े ४ ताकि मैं मारा जाऊं ५ क्या करू कहां जाऊं कोई मेरा नहीं जिसकी शरण गहूँ ६ कोई ऐसा स्थान नही जहां पर ना छिपू ७ इस प्रकार के डरके मारे कांपा करता था। इसकी समझ में यह सारी दुनियां ही इसकी