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संचेत्यनेयावदसंज्ञिकर्म-फलंशरीरीपरिभिन्नमर्म । यतोनहिज्ञानविधायिकर्मक तदाप्रोत्सहतेऽस्यनर्म ॥२१॥
अर्थात्-निगोदियाएकेन्द्रिय जीव की अवस्था से लेकर असंज्ञि पञ्चेन्द्रिय की अवस्था तक तो यह शरीरधारी जीव अपने किये हुये कर्मो के फलको ही भोगता रहता है । उम समय तो यह अपने मर्मभेदी कर्मों का सताया हुवा इतना बेहोश रहता है कि आत्मकल्याण के मार्ग की ओर इसकी रुख ही नहीं हो पाती है। मैं भी एक जीव हूं मुझे भी अपने आत्महित के लिये कुछ तो करना ही चाहिये ऐसा विचार भी नही होता। जैसे कि एक नशेवाज आदमी अपने किये हुये नशे का सताया, बेकार हो कर तड़फड़ाया करता है। संज्ञित्वमासाद्य तदुद्गमस्तु शरीरिणश्चात्महितैकवस्तु ॥ एकास्ति लब्धिदुरितस्यतादृक्-क्षयोपशान्तिर्यत आयतांहक् ।। ___ अर्थात्- जब उस नशेवाले का नशा कुछ हलका पड़ता है तो वह विचारता है कि देखो मैं कैसा पागल होगया कि मुझे जो अमुक काम करना था, गैय्या के लिये घास काटकर लाना था या और कुछ करना था सो अभी तक नही हुवा अव वह मुझे करना चाहिये इत्यादि । वैसे ही जब यह जीव संज्ञिपन को प्राप्त कर पाता है, इसके अन्तरंग मे कर्मचेतना का प्रादुर्भाव होता है शोचता है कि मुझे यह भूख प्यास क्यों ।