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जन्म मरण का दुःख है जो कि इस जीव को भोगना पड़ रहा हैं। तो फिर इसका मतलब यह हुवा कि मैं अगर इस दुःखसे मुक्त होना चाहता हूं तो कर्मचेष्टा से ही मुझे परे होना होगा स्से ही तिलाञ्जलि देनी होगी तभी काम बनेगा इस प्रकार की विचारधारा से जो इस भव्य जीवके चिनमें कोमलता आजाती है उसका नाम विशुद्धि लब्धि है । फिर इसके बाद मे
तेनामृतेनेवरुगस्तु पूजितो विधिः शीतहतस्तरुवा । स्थितिः किलान्तर्गत कोटि कोटि-मीर प्रमाणाप्यमुतोनमोटी हीनोऽनुभागोऽपि भवेचदेति प्रायोगिकालब्धिरमा देति अनेकवारं पुनरित्यथेष्टा समस्ति मंसारिण एव चेष्टा ।२६।
अर्थात् जैसे कि अमृत पीने से रोग उपशान्त बन जाता है या शीत का सताया गाछ खंखर हो जाया करता है वैसे ही उपयुक्त विचार के द्वारा इस जीवके पूर्वोपार्जित कर्म भी कमजोर बन जाते हैं उनकी जो सत्तर कोडाकोड़ी सागर प्रमाण तक की स्थिति थी वह घटकर अन्तः काडाकोडी सागर प्रमाण वाली रहजाती है औरअनुभाग भी कम होजाया करता है एवं उस समय आगे केलिये बन्धने वाले कर्मों की भी स्थिति अन्तः कोडाकाडी सागर से अधिक नही होती वस इस ऐसी परिस्थिति का नाम ही प्रायोगिका लब्धि है । यह यहां तक की वर्णन की हुई चेप्टा इस संसारी जीव को अभव्य तक