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अपने आप ही कर्मरूप होजाती हैं जैसा किजंकुणइ भाव मादाकत्ता सोहोदितस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदेतहिसयं पुग्गलं दव्वं ।। ६ ।। इस गाथा में लिखा है कि जैसे सूर्य उदय होता है उस समय कमल बन अपने आप ही खुल उठता है वैसे ही
जीव जव राग द्वपमय बनता है तो पुद्गल वर्गणायें भी स्वयमेव कर्मरूप वनजाती हैं। जीव वहां कुछनही करता उत्तर - जीव कुछ नहीं करता यह कैसे कहा वह अपने मावों को रागद्वप रूप तो करता ही है उसीसे कर्मवर्गण कर्मरूप बनती हैं। हां जीव ऐसा नही करता कि मैं मेरे इन राग द्वेष परिणामों से अमुक परमाणुवों को कर्मरूप करू और अमुक को नहीं करू परन्तु वहां जो अनेक जाति की पुद्गलवर्गणायें हैं उन मे से जीव के रागडेप से कर्मवर्गणायें ही खुद कर्मरूप में आपाती हैं जैसे कि एक मन्त्र-साधक भाई अपने स्थान पर बैठा बैठा ही मन्त्र का ध्यान करता है और जाप देता है ऐसा विचार करके कि अमुक की कैद छूट जावे वा अमुक का विप उतर जावे तो वह कैदी के पास जाकर उस की कैद दूर नहीं करता परन्तु दूर बैठे ही उसके ध्यान के प्रभाव से अनेक कैदियों में से उसी कैदी की कैद स्वयं छूट जाती है । स्वयं शब्द का अर्थ इतना ही है जैसा कि इसी गाथा की टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने बताया है । इसके बदले ऐसा अर्थ लगाना कि साधक के ध्यान ने कुछ नहीं किया ।