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का ध्यान अवश्य रखना पड़ता है । देखो श्रीपाल और मदनसुन्दरी के कथानक को। श्रीपाल ने मदनसुन्दरी से कहा कि मैं परदेश जानेका विचार करता हूं तो मदनसुन्दरी ने कहा कि मैं भी आपके साथ चलूगी आपकी सेवा करती रहूँगी। परन्तु श्रीपालने कहा कि नही बल्कि तुमको यहीं रहना चाहिये और अम्बाजी की सेवा करना चाहिये । मैं बारह वर्षमें वापिस आकर तुमको अवश्य सम्भाललूगा। मदनसुन्दरी को मानना पड़ा किन्तु श्रीपाल को भी उसका विचार मनमें रखना पड़ा ताकि बारह वर्ष होने में दो चार दिन बाकी रहे तो अपने पासवाले लोगों से उन्होने कहा कि अब हमें हमारे देश चलना पड़ेगा क्योंकि मदन सुन्दरी से किये हुये वादे का दिन सन्निकट आगया है एवं ठीक समय पर वहां जा पहुंचे थे । वैसे ही जीव के परिणामानुसार कार्माणवर्गणावों को परिणमन करना पड़ता है तो जीव को भी अपने किये कर्मके वश होकर चलना पड़ता है। जैसा कि श्री समयसार जी में ही लिखा हुवा है। देखो कर्तृकमाधिकार में
जीव परिणामहे? कम्मत्त पुग्गलापरिणमन्ति ।
पुग्गल कम्भणिमित्त तहेव जोवोवि परिणमई ॥२०॥ शवा- आपके कहने का तो अर्थ होता है कि जीव अपनी
जवरदस्ती से पुद्गल परमाणुवो को कर्म रूप बनाता है किन्तु समयसार जी मे तो लिखा है कि जब जीव के परिणाम कषायरूप होते है उस समय पुद्गल परमाणुये