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बाणी मे सदुपदेश हुआ जिसे सुनकर कच्छादि राजालोग तो अपनी पात्रता के अनुसार उलटे से सीधे रास्ते पर आगये फिर भी उन्हीं ऋषभदेव भगवान् का पोता मारीच उसी दिव्य ध्वनि को सुन कर प्रत्युत उलटे मार्ग पर चलने लगा । एवं किसीका सम्बन्ध भी किसीके साथ क्या चीज है देखो कि एक जंगल मे चार तरफ से चार मुसाफिर भिन्न भिन्न घरके
आमिले सो यावज्जगल मे रहे तब तक एक दूसरे को अपना साथी कहते है जंगल से पार हुये कि सब भिन्न भिन्न होकर अपने अपने घर में जाघुसते है । बस तो इसी प्रकार परस्पर कुटुम्ब का वा एक दूसरे पदार्थ का भी संयोग है जो कि अताविक या क्षणिक है । इस मेरे कहलाने वाले शरीर का भी मेरे साथ वैसा ही सम्बन्ध है जब तक है तब तक है अन्त में तो यह अपने रास्ते और मै मेरे रास्ते जाने वाला हूँ फिर मैं क्यों इस उलझन म पडू कि शरीर मेरा है । नहीं मै तो मैं ही मेरा हूँ एकाकी हूं । इस प्रकार के निर्द्वन्द्व भाव को जो जीव अपना लेता है, अन्तरंग से स्वीकार कर लेता है वह समता मे आजाता है फिर उसके लिये अपना पराया कोई कुछ नही रहजाता । न कोई मित्र, तोन कीई शत्रु । न कोई सहायक और न कोई कुछ बिगाड़ करने वाला ही वह तो सदा शुद्ध सच्चिदानन्द भावमें मग्न हो रहता है । सहजरूप मे परिणमन शील होलेता है बाकी यह बात उपर्युक्त संसारी जीव में कहां है। वह तो दूध के बने दही के समान विकार को स्वीकार