________________
१४-सम्यक्त्वपराक्रम (३)
अनुभाग के रूप मे परिणित हो जाता है अर्थात तीव्र रस वाले कर्म मन्द रस वाले हो जाते हैं । यहाँ तीव्र अनुभाग से तीव्र अशुभ अनुभाग ही ग्रहण करना चाहिए । अनुप्रेक्षा के द्वारा तीन रस देने वाले कर्म मंद रस देने वाले बन जाते है । ' परन्तु यह वात अशुभ प्रकृतियो के लिए ही समझना चाहिए । अगर शुभ अनुभाग हो तो शुभ अनुगग मे वृद्धि होती है और अशुभ अनुभाग हो तो अशुभ अनुभाग की वृद्धि होती है, मगर अनुप्रेक्षा तीव्र अशुभ अनुभाग को मन्द बना देती है और शुभ अनुभाग की वृद्धि करती है, क्योकि अनुप्रेक्षा शुभ है । शुभ से शुभ की ही वृद्धि होती है और अशुभ से अशुभ की वृद्धि होती है ।
अनुप्रेक्षा से और क्या लाभ होता है ? इसके लिए भगवान् कहते है- अनुप्रेक्षा बहुत प्रदेशो काली कर्म प्रकृति को अल्प प्रदेश वाली बनाती है।
तात्पर्य यह है कि अनुप्रेक्षा से ऐसा शुभ अध्यवसाय उत्पन्न होता है कि वह कर्म की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश- इन चारों के अशुभ वन्धनो की शुभ मे परिपत कर देता है।
यहा एक प्रश्न किया जा सकता है, वह यह कि यहाँ मायुकम को छोड देने का क्या कारण है ? शुभ परिणाम से शुभ आयु का बन्ध होता है और मुनिजन जो अनुप्रेक्षा करते है वह शुभ परिणाम वाली ही होती है। ऐसी दशा मे यहा आयुष्य का निषेध किस उद्देश्य से किया गया है ?
। इस प्रश्न का उत्तर यह है कि अनुप्रेक्षा से आयुष्य फर्म का बन्ध कदाचित होता है और कदाचित् नही भी