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बाईसवाँ बोल-१३
बन्धन भी शिथिल हो जाते हैं और दीर्घकाल की स्थिति वाले कर्म भी अल्पकालीन स्थिति वाले बन जाते हैं।
टीकाकार का कथन है कि देव, मनुष्य और तियंच की दीर्घ स्थिति के सिवाय दूसरी समस्त दीर्घ स्थिति अशुभ है । देवायु; मनुष्यायु और तिर्यंचायु कर्म को छोडकर समस्त कर्मों की दीर्घ स्थिति अशुभ ही मानी गई है। इस कयन के लिए प्रमाण देते हुए टीकाकार कहते हैं - सवासि पि थिईनो, सुभासुभाण पि होन्ति असुभायो । मणुस्सा तिरच्छदेवाउयं च, मोत्तण सेसाम्रो ॥
अर्थात्- दीर्घकाल की समस्त स्थितियां अशुभ हैं। केवल मनुष्य, देव और तिर्यंच के आयुष्य की दीर्घकालीन स्थिति ही अशुभ नही है।
टीकाकार देव, मनुष्य और तिर्यंच के शुभ आयुष्य को छोडकर और सब स्थिति अशुभ मे गिनते हैं । अतएव यहा दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करने का जो कथन किया गया है, सो यह कथन अशुभ स्थिति की अपेक्षा समझना चाहिए ।
गुरु कहते हैं - हे शिष्य ! अनुप्रेक्षा से शुभ अध्यवसाय होता है। सूत्रार्थ का चिन्तन करने से ऐसा शुभ अध्यवसाय होता है कि वह आयुष्य कर्म के सिवाय सात कर्मों के गाढ़े बन्धन को ढीला कर देता है । इसी प्रकार सात कर्मों को जो प्रकृति लम्बे समय की स्थिति वाली होती है उसे अल्पकाल की स्थिति वाली बना देती है । अर्थात् दोघंकाल में भोगने योग्य कर्मों को अल्पकाल मे भोगने योग्य बना देती है । इसके अतिरिक्त अनुप्रेक्षा से तीन अनुभाग भी मन्द