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चैतन्यता से हीन जो अबान, जड़ स्वयमेव हैं । उनको बना आराध्य ये नर, कह रहे ये देव हैं । अन्धों को अन्धे राज ही यदि, स्वयं पथ दिखलायेंगे । तो है सुनिश्चित वे पथिक जा, कूप में गिर जायेंगे ।
और
असुद्धं प्रोक्तं स्वैव, देवलि देवपि जानते । षेत्रं अनन्त हिण्डते, अदेवं देव उच्यते ॥
जो मन्दिरों की मूर्तियों को, मानते भगवान हैं । वे जीव करते हैं असम्यक, अशुभ कर्म महान हैं। पाषाण को, जड़ को अरे जो, देव कह कर मानते ।
वे नर अनन्तानन्त युग तक, धूल जग की छानते ।। मोक्षमार्ग में जाति पांति के भेद भाव को तथा ऊँच नीच की भावनाओं को आपने अपने बोलों में कहीं स्थान नहीं दिया है, प्रत्युत १६ वीं सदी के सन्तों के समान आपने भी इन भेदभावों की भर्त्सना ही की है
संमिक्त मंजुत्त पात्रस्य, ते उत्तमं मदा बुधै । हीन संमिक्त कुलीनस्य, अकुली अपात्र उच्यते ॥
सम्यक्त्व निधि का पात्र, यदि चांडाल का भी लाल है । तो वह नहीं है नीच, वह भूदेव है, महिपाल है ॥ सम्यक्त्व-निधि से रहित, यदि एक उच्च, श्रेष्ठ कुलीन है ।
तो वह महान दरिद्र है, उससा न कोई हीन है ॥ इस तरह यह पूरा प्रन्थ क्रान्तिकारक विचारों से भरा हुआ है। प्राचार विचार के शाखों से इसमें शुष्कता नहीं, प्रत्युत विचारों में नवीनता होने के कारण पढ़ने वालों की गति इसमें कहीं रुकती नहीं और जब स्वामी जी "यह पात्मा ही परमात्मा है" का नारा लगाते हैं तब तो विचारवान् पाठकों की गति में जैसे बिजली का संचार हो जाता है
परमानन्द सं दिष्टा, मुक्ति स्थानेषु तिस्टते । सो अहं देह मध्येषु, सर्वन्यं सास्वतं धुवं ॥